कितनी अजीब बात है ना, कई बरी हमे कितनी साडी आतें होती है जो किसी से कहनी होती है पर कैसा अजीब सा असमंजस है ना, समझ ही नहीं अत की किस्से जा कर कहे, वो कैसे भाव देगा, या वो समझेंगे भी या नहीं. कितना सोचना पढ़ रहा है आज किसी से बस दिल की एक बात कहने के लिए, फिर चालू हुआ लिखने का सिलसिला, की खैर अगर बोल ना सको तो लिख लो, मन हल्का सा लगेगा, फिर एक सोच अति है, लिख तो मैंने लिया, अब उसे भी कोई पढ़ेगा, पढ़ने पर वो क्या सोचेगा, और क्यों जरुरी है की हम ये चाहते है की हमारी लिखी साडी बातें कोई पढ़े या कोई समझे और हर एक मोड़ पर एक बात सामने अति है, “कोई मुझे नहीं समझता” क्या इसकी कोई जरुरत है? क्या जीने के लिए किसी दूसरे को हमे समझना जरुरी है? क्या हमारी खुद की संगत उसको परिपूर्ण करने के लिए काफी नहीं?
क्या खुद से की गयी दो बातें काफी नहीं जीने के लिए.
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